कम्पनी क्या होती है और कम्पनी की विशेषताएं क्या है


हेलो दोस्तों। 

आज के पोस्ट में हम जानेंगे कि कम्पनी क्या होती है और इसकी क्या क्या विशेषताएं होती है चलो समझते है। सबसे पहले कम्पनी का मतलब समझना होगा :


कम्पनी (company)

जिस प्रकार व्यवसाय की कमियों को दूर करने के लिए साझेदारी संगठन का प्रारूप हमारे सामने आया, उसी प्रकार साझेदारी संगठन के दोषों व दुर्लभताओ ने व्यावसायिक संगठन के एक नए प्रारूप को जन्म दिया जिसे कम्पनी कहते है। कम्पनियो का प्रादुर्भाव कब से हुआ? इस सम्बंध में निश्चित रूप से कुछ नही कहा जा सकता। परन्तु ऐसा अनुमान है कि कम्पनी का प्रादुभाव सबसे पहले पहले इटली में 12वी शताब्दी में हुआ। इटली की सरकार ने जनता से ऋण लेने के लिए ऋण पत्र जारी किये थे इन ऋणपत्रों को क्रय करने के लिए जनता ने पार्षदों के निर्माण किया जो आधुनिक संयुक्त पूंजी वाली कम्पनी से मिलते जुलते थे। इंग्लैंड में कम्पनी की स्थापना 16वी शताब्दी में हुई। भारत मे कम्पनी की स्थापना भारतीय कम्पनी अधिनियम के अंतर्गत की गई। 



कम्पनी क्या होती है और कम्पनी की विशेषताएं क्या है
कम्पनी क्या होती है और कम्पनी की विशेषताएं क्या है




कम्पनी की विशेषताएं 

कम्पनी के प्रकार तो होते ही है परंतु कम्पनी की विशेषताएं बहुत सी है चलो विशेषताओ के बारे में समझते है दोस्तों। 

1. समामेलित संघ - कम्पनी का निर्माण कानून के द्वारा होता हैइसका अस्तित्व तभी तक रहता है जब तक कि इसे कानून द्वारा मान्यता प्राप्त हो। कम्पनी अधिनियम के अधीन कम्पनी का निर्माण एवं पंजीयन होना अनिवार्य है। कोई भी संस्था या संघ जिसकी स्थापना लाभ कमाने के उदेश्य से की गई है। उसका विधान के अंतर्गत पंजिकृत होना जरूरी है। 


2. कृत्रिम व्यक्ति - कम्पनी की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह विधान द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है। कम्पनी को कृत्रिम व्यक्ति इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसका जन्म अप्राकृतिक तरीके से होता है। कम्पनी एक अदृश्य, अमूर्त एवं अमर व्यक्ति है। जिसका केवल कानून की नजर में ही अस्तित्व होता है। 


3. पृथक वैधानिक अस्तित्व - यह कम्पनी का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण है। कम्पनी अधिनियमनुसार कम्पनी का सम्मेलन हो जाने के बाद इसका अपने सदस्यों से पृथक अस्तित्व होता है। परिणामस्वरूप, कम्पनी अपने किसी भी सदस्य के साथ किसी भी सदस्य के साथ कोई भी अनुबंध कर सकती है। अपने नाम स्व सम्पति रख सकती है, रुपये का लेन देन कर सकती है, बैंक में खाता खोल सकती है, दुसरो पर वाद प्रस्तुत कर सकती है। 


4. स्थायी आस्तित्व - कम्पनी का चिरस्थायी आस्तित्व भी इसका एक जरुरी लक्षण है। इसका जीवन इसके सदस्यों या संचालको के जीवन और निर्भर नही करता है। कम्पनी के सदस्य चाहे बदलते रहे परन्तु कम्पनी निर्विघ्न चलती रहती है। सदस्यों की मृत्यु, दिवालियापन या पागल हो जाने का कम्पनी के अस्तित्त्व पर कोई प्रभाव नही पड़ता। कम्पनी के सदस्य आते रहते है और जाते रहते है लेकिन कम्पनी चलती रहती है।
 

5. सार्व मुद्रा - कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति है अत यह किसी भी प्रलेख पर हस्ताक्षर नही कर सकती है। इसलिए कानून के अंतर्गत यह जरूरी है कि प्रत्येक कम्पनी की एक सार्व मुद्रा होनी चाहिए जिस पर उसका नाम खुदा रहना चाहिए। सार्व मुद्रा कम्पनी के सामान्य अस्तित्व का प्रतीक है। इसके लग जाने पर ही कम्पनी को उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। 


6. सीमित दायित्व - कम्पनी के प्रत्येक अंशधारी का दायित्व सामान्यतः सीमित होता है। हानि होने की दशा में कम्पनी के ऋणदाता अंशधारियों की व्यक्तिगत सम्पति पर किसी प्रकार का हस्तक्षेप नही कर सकते है। 


7. सदस्यों की संख्या - एक सार्वजनिक कम्पनी, सदस्यों की संख्या की संख्या कम से कम सात और अधिक से अधिक इसके द्वारा निर्गमित अंशो की संख्या तक होती है। दूसरे शब्दों में इसकी अधिकतम संख्या निर्धारित नही है। निजी कम्पनी में, सदस्यों की संख्या कम से कम दो और अधिक से अधिक दो सौ हो सकती है। 


8. प्रतिनिधि प्रबन्ध - कम्पनी को एक काल्पनिक एवं अमूर्त व्यक्ति माना जाता है, अतः वह अपने कार्यो का स्वयं संचालन नही कर सकती। कम्पनी का संचालन एवं प्रबन्ध अंशधारियों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा किया जाता है क्योंकि अंशधारी इतनी अधिक मात्रा में व दूर दूर होते है की सभी के द्वारा कम्पनी का प्रबन्ध करना अत्यंत कठिन होता है। 


9. कार्यक्षेत्र की सीमाएं - प्रत्येक कम्पनी का निर्माण किसी निश्चित उदेश्य को पूरा करने के लिए किया जाता है। कम्पनी के उद्देश्यों के वर्णन पार्षद सीमानियम में दिया होता है, और यही उसके कार्यक्षेत्र की सीमाएं होती है। कोई भी कम्पनी अपने पार्षद सीमानियमो का उल्लंघन करके कोई भी कार्य नही कर सकती है। यदि कम्पनी ऐसा करती है तो वे अन्य कार्य नही होते तथा अधिकार क्षेत्र के बाहर होते है। 


10. अंशो की हस्तान्तरणशीलता - कम्पनी की पूंजी कुछ निश्चित मूल्य के अंशो में विभक्त होती है जो कि उसके सदस्यों द्वारा दी जाती है। कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 44 के अनुसार प्रत्येक सदस्य अपने अंशो को स्वत्रंत्रतापूर्वक अन्य व्यक्तियों को हस्तांतरित कर सकता है लेकिन कुछ विशेष परिस्तिथियों में कम्पनी अपने पार्षद अन्तर्नियमों द्वारा ऐसे अंशो के हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगा सकती है। 


11. अस्तित्व की समाप्ति - जिस प्रकार कम्पनी का जन्म विधान द्वारा होता है उसी प्रकार उसकी समाप्ति भी विधान द्वारा हो सकती है।

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