Gradual Realisation of Assets and Piecemeal Distribution in Hindi


हेलो दोस्तों।

आज के पोस्ट में हम सम्पत्तियों की राशि धीरे धीरे प्राप्त होना और उसका शनैः शनैः वितरण करना के बारे में जानेंगे।


सम्पत्तियों की राशि धीरे धीरे प्राप्त होना और उसका शनैः शनैः वितरण करना (gradual realisation of assets and piecemeal distribution)

फर्म के विघटन की तिथि पर सभी सम्पत्तियां तुरन्त ही बिक जाती है और उसी तिथि पर सभी दायित्वों और व्ययों का भुगतान कर दिया जाता है। इस मान्यता से वसूली की लाभ हानि तुरन्त ज्ञात हो जाती है और साझेदारो को डेय अंतिम राशि ज्ञात हो जाती है। परंतु वास्तविक व्यवहार में यह मान्यता ठीक नही है। सम्पत्तियों की बिक्री और रोकड़ की प्राप्ति धीरे धीरे होती है और कई बार तो दो सम्पत्तियों की बिक्री के बीच कुछ महीनों के अंतर भी हो सकता है। अतः व्यवसाय के अंतिम परिणाम काफी समय तक ज्ञात नही हो पाते। इस बीच जैसे जैसे सम्पत्तियों से रुपया प्राप्त होता रहता है इसे विभिन्न पक्षकारों में वितरित करते रहते है। सर्वप्रथम सभी बाह्य दायित्वों का भुगतान किया जाता है, उसके बाद साझेदारो से लिए गए ऋणों का भुगतान किया जाता है और यदि उसके बाद भी सम्पत्तियों के विक्रय से रुपया प्राप्त होता है तो साझेदार बिना सभी सम्पत्तियों के विक्रय की पतिक्षा किए इसे तुरंत ही वितरित करने चाहते है।




gradual realisation of assets and piecemeal distribution in hindi
gradual realisation of assets and piecemeal distribution in hindi




ऐसी दशा में कठिनाई यह आती है कि उपलब्ध राशि को साझेदारो में उनकी पूंजियां वापिस करने के लिए किस प्रकार वितरित किया जाए क्योंकि वसूली की लाभ हानि तब तक ज्ञात नही हो सकती है जब तक कि सभी सम्पत्तियां पूर्ण रूप से विक्रय न कर दी जाएं और वसूली की लाभ हानि ज्ञात किए बिना प्रत्येक साझेदार को देय वास्तविक राशि की ठीक ठीक गणना नही हो सकती।


ऐसी परिस्थिति में साझेदारो को भुगतान करने के लिए निम्नलिखित दो पद्धतियों में से कोई एक पद्धति अपनाई जा सकती है :

1. आनुपातिक पूंजी पद्धति - इस पद्धति में साझेदारो कई पूंजियो को उनके लाभ विभाजन अनुपात के अनुसार समायोजित कर लिया जाता है और इस साझेदार को सबसे पहले भुगतान किया जाता है जिसकी पूंजी दूसरे साझेदारो की पूंजी से लाभ विभाजन अनुपात के आधार पर सबसे अधिक है। आधिक्य पूंजियो के भुगतान के बाद उनकी पुंजिया खुद ही लाभ विभाजन अनुपात में बच जाती हैम इसके बाद सम्पत्तियों के विक्रय से जो राशि प्राप्त होती रहती है उसे सभी साझेदारो में लाभ विभाजन अनुपात में बाँटते रहते है।


2. अधिकतम हानि पद्धति - इस पद्धति में हस्तस्त राशि और सम्पत्तियां की बिक्री से धीरे धीरे प्राप्त होने वाली राशि का निम्न प्रकार प्रयोग करना चाहिए :

(i) सबसे पहले वसूली के व्ययों, लेनदारों तथा अन्य बाह्य दायित्वों का भुगतान किया जाएगा।


(ii) इसके बाद साझेदारो द्वारा फर्म को दिए गए ऋणों का भुगतान किया जाएगा।


(iii) इसके बाद यह मानकर की अब आगे सम्पत्तियों के विक्रय से अन्य कोई राशि प्राप्त नही होगी, प्राप्त क़िस्त की राशि की कुल पुंजियों से तुलना करके वसूली पर अधिकतम हानि ज्ञात कर लेनी चाहिए और इस हानि को सभी साझेदारो मे लाभ विभाजन अनुपात में बांटकर साझेदारो की पूंजियो में से घटा देना चाहिए।


(iv) इसके बाद यदि किसी साझेदार का पूंजी खाता डेबिट शेष प्रदर्शित करता है तो उस साझेदार को दिवालिया मानकर उसके डेबिट शेष को अन्य साझेदारो में गार्नर बनाम मरे के नियम के अनुसार समापन से तुरन्त पहले की उनकी पूंजियो कर अनुपात में बांट दिया जाता है।


(v) इसके बाद साझेदारो की पूंजी का जो शेष बचता है, उसका योग उस धनराशि के बराबर होता है जो बंटवारा करने के लिए उपलब्ध है, और उतनी राशि प्रत्येक साझेदार को दे दी जाती है।


(v) इसके बाद सम्पत्तियों के विक्रय से प्राप्त द्वितीय क़िस्त, तृतीय क़िस्त और इसके बाद ही प्रत्येक क़िस्त के लिए उपरोक्त प्रक्रिया पुनः दोहराई जाती है। 

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