Process of Internationalisation of Business in Hindi

हेलो दोस्तों।

इस पोस्ट में हम व्यवसाय के अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया के बारे में जानेंगे।


व्यवसाय के अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया (Process of Internationalisation of Business)

व्यवसाय के अंतर्राष्ट्रीयकरण का तात्पर्य व्यवसाय की क्रियाओं को विश्व के अन्य देशों तक पहुँचाना है। यह विदेशी व्यापार, तकनीकी सहयोग, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश, विलयन, व्यूहरचनात्मक गठबंधन आदि के प्रारूप में हो सकता है। व्यवसाय के अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रकिया विभिन्न अवस्थाओं से निकलती है। व्यावसायिक इकाई को वैश्विक इकाई बनने के लिए विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। इनकी चर्चा निम्नलिखित है :


 

व्यवसाय के अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया
व्यवसाय के अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया




1. निर्यात आयात अवस्था - यह व्यवसाय के अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रारंभिक अवस्था है। घरेलू व्यावसायिक इकाई अपने आधिक्य उत्पादन का अन्य देशों को निर्यात करती है। ये निर्यात प्रत्यक्ष निर्यात या अप्रत्यक्ष निर्यात के रूप में हो सकते है।
प्रत्यक्ष निर्यात में व्यावसायिक इकाई एजेंटों की सहायता से उत्पादों को अंतिम उपभोक्ताओं को सीधा बेचती है। कीमती उत्पादों व औद्योगिक उत्पादों की दशा में प्रत्यक्ष निर्यात द्वारा उत्पादों को विदेशी आयातकों को सीधा बेचा जाता है।

अन्तराष्ट्रीय व्यवसाय के प्रकार

अप्रत्यक्ष निर्यात में व्यावसायिक इकाई वितरकों/विपणन मध्यस्थों को उत्पाद बेचती है। ये वितरक उत्पाद को अंतिम उपभोक्ताओं को बेचते है। इसी तरह घरेलू व्यावसायिक इकाई आवश्यक कच्चे माल, उपकरण, टेक्नोलॉजी, कल पुर्जे आदि विदेशों से आयात करके अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।


घरेलू व्यवसायिक इकाइयां इन कल पुर्जो, टेक्नोलॉजी को खुद बनाने के स्थान पर आयात करना उचित मानती है, क्योंकि उत्पादों को खुद बनाने में लागत भी अधिक पड़ती है तथा इसमें सुलभता भी कम होती है।


2. तकनीकी सहयोग/संयुक्त उपक्रम - जब विदेशों में व्यवसाय का आकार बढ़ जाता है, तब केवल निर्यात आयात विभाग की सहायता से विदेशी व्यवसाय को चलाना बहुत मुश्किल हो जाता है। तब व्यावसायिक इकाई विदेशी कंपनियों के साथ साथ तकनीकी समझौता करती है या संयुक्त उपक्रम स्थापित करती है। तकनीकी सहयोग में मूल कंपनी अपनी मुख्य टेक्नोलॉजी मेजबान देश की व्यावसायिक इकाई को उपलब्ध करवाती है। तथा इसके लिए वह रॉयल्टी वसूल करती है। इसके अलावा कई बार मूल कंपनी के पास मेजबान देश मे निवेश के लिए पर्याप्त वित्त नही होता, तब वह विदेशी इकाई के साथ सहयोग द्वारा संयुक्त उपक्रम स्थापित करती है।


व्यावसायिक इकाई विदेशी साझेदार को अपने ब्रांड के नाम से उत्पाद बनाने के लिए लाइसेंस दे देती है या फ्रैंचाइज़ी दे देती है। फ्रैंचाइज़ी में विदेशी साझेदार को मूल कंपनी के नाम से व्यवसाय करने की अनुमति मिल जाती है।


3. निवेश अवस्था - व्यवसाय के अंतर्राष्ट्रीयकरण की यह अंतिम अवस्था है। इस अवस्था में व्यावसायिक इकाई विदेशों में अपनी सहायक कंपनियां स्थापित करती है। ये सहायक कंपनियां प्रत्यक्ष विदेशी निवेश द्वारा स्थापित की जाती है। इस प्रारूप में विदेशों में उत्पादन इकाइयां स्थापित की जाती है। इन उत्पादन इकाइयों में उत्पाद बनाकर मेजबान देश मे भी बेचा जाता है, तथा इसे अन्य देशों में भी निर्यात किया जाता है।


निवेश का एक अन्य प्रारूप विलयन व अधिग्रहण है। इसमें विदेशी कंपनी अन्य देश मे विद्यमान व्यावसायिक इकाई के साथ विलयन या अधिग्रहण का समझौता करती है, जबकि विलयन व अधिग्रहण में मूल कंपनी मेजबान देश मे पहले से स्थापित व्यावसायिक इकाई के साथ गठबंधन का समझौता करती है तथा पहले से स्थापित कंपनी के अनुभवों व ज्ञान से लाभान्वित हो सकती है।


अंतर्राष्ट्रीयकरण की इस अवस्था में व्यावसायिक इकाई पूर्ण रूप से बहुराष्ट्रीय कंपनी बन जाती है। इस अवस्था मे व्यावसायिक इकाई के विदेशों में स्वयं के उत्पादन केंद्र, वितरण केंद्र, सेवा केंद्र आदि होते है। इससे मूल कंपनी विदेशी बाजारों के उपभोक्ताओं की रुचि, पसन्द, प्राथमिकता के अनुरूप उत्पाद बना सकती है।


अन्तराष्ट्रीय व्यवसाय के इस प्रारूप में व्यावसायिक इकाई खुद विपणन अनुसन्धान करती है, विदेशी मीडिया में विज्ञापन देती है, विदेशों में वितरकों की नियुक्ति करती है तथा इस तरह यह वास्तविक अन्तराष्ट्रीय व्यावसायिक इकाई बन जाती है। वर्तमान में अधिकतर बहुराष्ट्रीय कंपनियां व्यवसाय के अंतर्राष्ट्रीयकरण की इस अवस्था में है जैसे नस्लें, नोकिया, सोनी, कोका कोला, प्रॉक्टर व गैम्बल आदि।

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