Difference Between Working Capital Management and Capital Budgeting in hindi


हेलो दोस्तों।

आज के पोस्ट में हम कार्यशील पूंजी प्रबन्ध तथा पूंजी बजटिंग में अंतर के बारे में समझेंगे।


कार्यशील पूंजी प्रबन्ध तथा पूंजी बजटिंग के अंतर (Difference Between Working Capital Management and Capital Budgeting)

कार्यशील पूंजी प्रबन्ध तथा पूंजी बजटिंग में अंतर इस प्रकार है :

1. समयावधि

कार्यशील पूंजी प्रबन्ध - कार्यशील पूंजी प्रबन्ध के निर्णय अल्पकालीन प्रकृति के होते है।

पूंजी बजटिंग - पूंजी बजटिंग के निर्णय दीर्घकालीन प्रकृति के होते है।




Difference Between Working Capital Management and Capital Budgeting in hindi
Difference Between Working Capital Management and Capital Budgeting in hindi





2. सम्बन्धित

कार्यशील पूंजी प्रबन्ध - कार्यशील पूंजी प्रबन्ध का सम्बंध चालू सम्पत्तियों से होता है।

पूंजी बजटिंग - पूंजी बजटिंग स्थायी या दीर्घकालीन सम्पत्तियों से सम्बंधित होता है।


3. कोषों का प्रयोग

कार्यशील पूंजी प्रबन्ध - कार्यशील पूंजी प्रबन्ध प्रायः थोड़ी मात्रा में कोषों का प्रयोग किया जाता है।

पूंजी बजटिंग - पूंजी बजटिंग में अधिक मात्रा में कोषों का प्रयोग किया जाता है।



4. उद्देश्य

कार्यशील पूंजी प्रबन्ध - कार्यशील पूंजी प्रबन्ध का उद्देश्य पर्याप्त कार्यशील पूंजी की मात्रा का निर्धारण करना तथा इस मात्रा को बनाए रखना होता है।

पूंजी बजटिंग - पूंजी बजटिंग का उद्देश्य उपलब्ध पूंजी को दीर्घकालीन लाभ प्राप्ति के उद्देश्य से विनियोग करना होता है।



5. आसान

कार्यशील पूंजी प्रबन्ध - कार्यशील पूंजी प्रबन्ध सम्बन्धी निर्णय लेना आसान होता है।

पूंजी बजटिंग - भविष्य से सम्बंधित होने के कारण पूंजी बजटिंग सम्बन्धी निर्णय लेना कठिन होता है।



6. दोहराव

कार्यशील पूंजी प्रबन्ध - इसमे लिए जाने वाले निर्णय पुनरावृत्ति प्रकृति के होते है।

पूंजी बजटिंग - पूंजी बजटिंग निर्णय जल्दी दोहराए नही जाते।



7. जोखिम

कार्यशील पूंजी प्रबन्ध - कार्यशील पूंजी प्रबन्ध सम्बन्धी निर्णयों में कम जोखिम होता है।

पूंजी बजटिंग - पूंजी बजटिंग सम्बन्धी निर्णय भविष्य से सम्बंधित होने के कारण इनमे अधिक जोखिम होता है।




अत्यधिक तथा अपर्याप्त कार्यशील पूंजी के दोष के बारे में जानकारी

प्रत्येक व्यावसायिक संस्था में कार्यशील पूंजी की मात्रा पर्याप्त अर्थात दैनिक व्यावसायिक क्रियाओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए। संस्था में कार्यशील पूंजी न तो आवश्यकता से अधिक होनी चाहिए और न ही आवश्यकता से कम होनी चाहिए। आवश्यकता से अधिक कार्यशील पूंजी होने से वह बेकार ही पड़ी रहेगी और पूंजी की लागत अनावश्यक रूप से बढ़ जाएगीं इसके विपरीत स्थिति में, अगर संस्था में कार्यशील पूंजी की मात्रा आवश्यकता से कम हो जाएगी तो निर्माण कार्य के रुकावट उतपन्न होगी जिससे विक्रय कम हो जाएंगे और संस्था के लाभों में भी कमी हो जाएगी। अतः अत्यधिक तथा अपर्याप्त कार्यशील पूंजी, दोनों ही दशाएं संस्था के लिए हानिकारक है।

Post a Comment