वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्य या लक्ष्य


हेलो दोस्तों।

आज के पोस्ट में हम वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्यों के बारे में जानेंगे।


वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्य (Objectives of Financial Management)

उद्देश्य उन प्रमापो का निर्धारण करते है जिनके आधार पर किसी विशेष निर्णय की सफलता एवं लाभप्रदता का आलंकन किया जाता है। ऐसे प्रमापो का निर्धारण करने के लिए निम्नलिखित दो प्रमुख विचारधाराएं है -


1. लाभों को अधिकतम करना

2. सम्पदा को अधिकतम करना



1. लाभों को अधिकतम करना - इस विचारधारा के अनुसार, केवल उन्हीं सम्पत्तियों, परियोजनाओं तथा निर्णयों के चुनाव करना चाहिए, जो लाभदायक है तथा उन सभी सम्पत्तियों, परियोजनाओं तथा निर्णयों को छोड़ देना चाहिए जो लाभप्रद नही है। वित्तीय प्रबन्ध की इस विचारधारा के पक्ष के निम्नलिखित तर्क दिए गए है -




Objectives of Financial Management in hindi
Objectives of Financial Management in hindi





पक्ष में तर्क (Arguments in Favour)

(i) इससे उपक्रम में उपलब्ध साधनों का अनुकूलतम उपयोग सम्भव होता है।




(ii) उपक्रम के लिए लाभ अधिकतम उद्देश्य एक प्रेरक तत्व के रूप में काम करता है जिससे उपक्रम अपनी पूरी कार्य क्षमता से काम करता है।


(iii) लाभ प्राप्ति से उपक्रम को वित्त की प्राप्ति होती है।


(iv) लाभ प्राप्ति के आधार पर उपक्रम की आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन किया जा सकता है।


(v) यह उद्देश्य सामाजिक कल्याण एवं सामाजिक उत्तरदायित्व की पूर्ति में भी सहायक है।


(vi) आर्थिक मंदी व अन्य प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के लिए भी लाभ अधिकतम उद्देश्य बहुत सहयोगी है।




विपक्ष में तर्क (Arguments Against)

वित्तीय प्रबन्ध के लाभ को अधिकतम करने के उद्देश्य के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए गए है -

(i) संकीर्ण दृषिटकोण - लाभ अधिकतम उद्देश्य की आलोचना इसके संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण की जाती है। इसके अंतर्गत समाज, सरकार, श्रमिको व उपक्रम से जुड़े विभिन्न पक्षकारों के हितों की अवहेलना करते हुए केवल लाभों में वृद्धि करने पर बल दिया जाता है।


(ii) अस्पष्टता - इस विचारधारा की आलोचना इसलिए भी की जाती है क्योंकि यह विचारधारा पूर्णतया स्पष्ट नही है। इसके अंतर्गत लाभ का अर्थ स्पष्ट नही किया गया है। अलग अलग व्यक्तियो के लिए लाभ अलग हो सकता है जैसे दीर्घकालीन, अल्पकालीन, कर घटाने से पहले या कर घटाने के बाद, कुल लाभ या लाभ की प्रतिशत दर आदि। अतः इस विचारधारा में यह स्पष्ट नही किया गया है कि व्यावसायिक उपक्रम को कौन सा लाभ अधिकतम करना चाहिए।


(iii) आय से सम्बंधित जोखिम तत्वों की अनदेखी - इस विचारधारा की आलोचना करने का एक अन्य कारण यह भी है कि इसमें आय से सम्बंधित जोखिम तत्वों को अनदेखा किया जाता है।


(iv) अंशो के बाजार मूल्य पर लाभांश नीति के प्रभाव को ध्यान में नही रखती - इस विचारधारा को अपनाने वाली फर्में अपने अंशों पर लाभांश का भुगतान करना पसंद नही करती, क्योकि लाभों को व्यवसाय में ही पुनर्विनियोजित करने से ही प्रति अंश आय को अधिकतम करने का उद्देश्य प्राप्त हो सकता है।



2. सम्पदा को अधिकतम करना - सम्पदा को अधिकतम करने सम्बन्धी विचारधारा, लाभों को अधिकतम करने की विचारधारा की सभी सीमाओं को दूर करती है। इसलिए वर्तमान समय मे वित्तिय निर्णय लेने के लिए इस विचारधारा को व्यापक रूप से मान्यता प्रदान की गई है। इसे शुद्ध वर्तमान मूल्य अधिकतम करने की विचारधारा भी कहते है। यह विचारधारा किसी सम्पति के मूल्य को उस सम्पत्ति से प्राप्त लाभों में से उस सम्पत्ति को प्राप्त करने की लागत को घटाकर मापती है। इस विचारधारा के अंतर्गत किसी सम्पत्ति को प्राप्त होने वाले लाभों को रोकड़ प्रवाहों के आधार पर मापा जाता है न कि लेखांकन लाभों के आधार पर।


ऐसा करने से लाभ शब्द के अर्थ की अस्पष्टता भी दूर हो जाती है। यह विचारधारा मुद्रा के समय मूल्य को भी महत्व प्रदान करती है। इस विचारधारा के अंतर्गत भावी रोकड़ प्रवाहों के वर्तमान मूल्यों को मापते समय रोकड़ प्रवाहों को एक निश्चित प्रतिशत दर, जिसे कसौटी दर कहते है , से घटाकर समय एवं जोखिम तत्वों का प्रावधान किया जाता है।


यदि किसी सम्पत्ति या वित्तीय क्रिया का शुद्ध वर्तमान मूल्य धनात्मक हो तो ऐसी सम्पत्ति या वित्तीय क्रिया अंशधारियों के लिए सम्पदा उतपन्न करती है। अतः ऐसी सम्पत्ति या वित्तीय क्रिया को स्वीकार कर लिया जाता है। इसके विपरीत अगर किसी सम्पत्ति या वित्तीय क्रिया का शुद्ध वर्तमान मूल्य ऋणात्मक हो तो ऐसी सम्पत्ति या वित्तीय क्रिया को अस्वीकार कर दिया जाता है, क्योकि ऐसी सम्पत्ति को क्रय करने से या वित्तीय क्रिया को करने से अंशधारियों की सम्पदा में कमी आयेगी। 

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